मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन: सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग

मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन: सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग

परिचय:

मध्यकालीन भारत का इतिहास केवल राजाओं और युद्धों का नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जागरण का काल भी था। इस युग में भक्ति आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने धार्मिक विश्वासों को एक नई दिशा दी और समाज के हर वर्ग को ईश्वर के प्रति समर्पण की एक सरल और आत्मिक राह दिखाई।

 

 

 

भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति और पृष्ठभूमि

 

भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में 7वीं-8वीं शताब्दी के आसपास हुई, जहाँ आलवार (विष्णु भक्त) और नायनार (शिव भक्त) संतों ने ईश्वर की भक्ति को जाति और वर्ण से ऊपर रखा। यह आंदोलन धीरे-धीरे उत्तर भारत में फैल गया और 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच अपने चरम पर पहुँचा।

 

 

 

भक्ति आंदोलन के प्रमुख विचार

 

1. एकेश्वरवाद:

भक्त कवियों ने एक निराकार या साकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया, जैसे कबीर ने निराकार ब्रह्म की भक्ति को अपनाया, तो तुलसीदास ने राम को ईश्वर रूप में स्वीकारा।

 

 

2. जातिवाद का विरोध:

भक्ति आंदोलन के संतों ने ऊँच-नीच, छुआछूत और जाति-पाति के विरोध में आवाज़ उठाई। रविदास, चोखामेला और कबीर जैसे संत स्वयं निम्न जातियों से थे, लेकिन उनकी वाणी समाज को समानता का संदेश देती थी।

 

 

3. मूल भाषा में उपदेश:

संतों ने संस्कृत की जगह लोकभाषाओं जैसे अवधी, ब्रज, हिंदी, तमिल, कन्नड़ आदि में उपदेश दिए, जिससे आम जनता उनसे सीधे जुड़ सकी।

 

 

 

 

 

भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत और उनके योगदान

 

1. कबीर (15वीं शताब्दी):

उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ज़ोर दिया। उनकी रचनाएँ “बीजक” में संकलित हैं।

 

> प्रसिद्ध दोहा: “पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।”

 

 

 

 

2. गुरु नानक देव:

सिख धर्म के संस्थापक, जिन्होंने “एक ओंकार” के माध्यम से ईश्वर की एकता का सन्देश दिया।

उन्होंने लंगर की परंपरा शुरू कर समाज में समानता का संदेश फैलाया।

 

 

3. तुलसीदास:

रामचरितमानस के रचयिता, जिन्होंने भगवान राम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में प्रस्तुत किया।

 

 

4. मीराबाई:

कृष्ण की परम भक्त मीराबाई ने राजसी जीवन त्यागकर भक्ति का मार्ग अपनाया और लोकभाषा में सुंदर भजनों की रचना की।

 

 

 

 

 

भक्ति आंदोलन का प्रभाव

 

धार्मिक सुधार:

ईश्वर तक पहुँचने के लिए पंडित या मौलवी की आवश्यकता नहीं, यह विचार आम जन में फैला।

 

सामाजिक समरसता:

सभी जातियों और वर्गों को समान मानने का विचार सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है।

 

भाषा और साहित्य का विकास:

लोकभाषाओं में साहित्य की बाढ़ आ गई। संतों की वाणी आज भी विभिन्न भाषाओं के अमूल्य रत्न हैं।

 

आधुनिक भारतीय समाज की नींव:

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी भक्ति आंदोलन के आदर्शों ने गांधी जैसे नेताओं को प्रेरित किया।

 

 

 

 

निष्कर्ष

 

भक्ति आंदोलन केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं था, यह एक सामाजिक क्रांति थी जिसने भारत की आत्मा को झकझोरा और उसे एक नए धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रास्ते पर अग्रसर किया। आज भी भक्ति कवियों की वाणी हमें प्रेम, समरसता और ईश्वर भक्ति की ओर प्रेरित करती है। UPSC सहित अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए यह विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज की गहराई से जुड़ा हुआ है।

 

जाति व्यवस्था का विश्लेषण

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