भारतीय समाज में जाति व्यवस्था: उत्पत्ति, परिवर्तन और समकालीन संदर्भ”
🔹 परिचय
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एक प्राचीन सामाजिक ढांचा है जो हजारों वर्षों से अस्तित्व में है। यह न केवल सामाजिक संरचना का हिस्सा रहा है, बल्कि राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी गहराई से प्रभावित करता रहा है। UPSC के दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक, सामाजिक और समकालीन विश्लेषण अत्यंत आवश्यक है।
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🔹 जाति व्यवस्था की उत्पत्ति
वैदिक काल में जाति व्यवस्था ‘वर्ण व्यवस्था’ के रूप में शुरू हुई थी, जिसमें चार मुख्य वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) थे।
यह व्यवस्था मूलतः कर्म आधारित थी, परंतु समय के साथ यह जन्म आधारित बन गई।
मनुस्मृति और अन्य धार्मिक ग्रंथों में इस व्यवस्था को धार्मिक मान्यता दी गई।
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🔹 जाति व्यवस्था के प्रमुख लक्षण
1. वर्ण और जाति में भेद – वर्ण सैद्धांतिक था जबकि जाति सामाजिक यथार्थ बन गया।
2. विवाह प्रतिबंध (Endogamy) – जातियों के भीतर ही विवाह की अनुमति।
3. वृत्ति का अनुवांशिक निर्धारण – पेशा जन्म से तय होता था।
4. अस्पृश्यता – निम्न जातियों के साथ भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार।
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🔹 जाति व्यवस्था में परिवर्तन
काल परिवर्तन
औपनिवेशिक काल ब्रिटिशों ने जातियों की जनगणना कर उन्हें और कठोर कर दिया।
सामाजिक सुधार आंदोलन राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, अंबेडकर ने जातिवाद का विरोध किया।
स्वतंत्रता के बाद संविधान में समानता, आरक्षण और अस्पृश्यता उन्मूलन जैसे प्रावधान।
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🔹 समकालीन भारत में जाति का स्वरूप
राजनीति में जाति: चुनावी रणनीति, वोट बैंक, जाति आधारित दल।
आर्थिक संरचना में प्रभाव: उच्च जातियाँ अब भी बेहतर संसाधनों पर कब्जा किए हुए हैं।
शहरीकरण और जाति: शहरों में जातिगत पहचान कमजोर पड़ी है लेकिन समाप्त नहीं हुई।
ऑनलाइन और सोशल मीडिया: डिजिटल युग में भी जातिवादी ट्रोलिंग, और सोशल ग्रुप्स का विस्तार।
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🔹 UPSC में संभावित प्रश्न
GS Paper 1: “भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के उद्भव, विकास और समकालीन स्थिति का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।”
Essay Paper: “जाति एक सामाजिक सच्चाई है या बाधा?”
Ethics Paper: जातिगत भेदभाव और प्रशासनिक निष्पक्षता का मूल्यांकन।
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🔹 संविधानिक और कानूनी प्रयास
अनुच्छेद 15 – भेदभाव निषेध
अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता का उन्मूलन
SC/ST (Atrocities) Act, 1989 – दलितों के खिलाफ अपराधों पर सख्त सजा
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🔹 निष्कर्ष
जाति व्यवस्था भारत की सामाजिक विविधता का हिस्सा रही है लेकिन इसका दमनकारी रूप आज भी समाज को पीछे खींच रहा है। जातिविहीन समाज की ओर बढ़ना सिर्फ संवैधानिक बाध्यता नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता और समान अवसरों की गारंटी आवश्यक है।